थोर चिंतक स्व. दत्तोपंत ठेंगडी यांचे जन्मशताब्दी वर्ष येत्या लक्ष्मी पूजनाला संपेल. गेल्या वर्षी उदघाटन कार्यक्रम झाला होता. यावर्षी समारोप होणे कठीण आहे. नुकताच एक ऑनलाइन समारोप कार्यक्रम पाहिला. आयोजकांच्या सोयीने तो घेतला असावा. या निमित्ताने स्व. ठेंगडी यांच्या एका प्रसिद्ध भाषणातील काही वेचे. एवढेच वेचे वारंवार वाचले तरीही विचारांना दिशा आणि आकार मिळू शकेल. वर्तमानातील अनेक गोष्टींचा विचार करतानाही यातून प्रकाश मिळू शकेल. ज्यांना विविध कारणांनी ठेंगडीजीच मान्य नाहीत किंवा जे thengdi school of thought इत्यादी पद्धतीने विचार करतात त्यांनाही निश्चितच काही ना काही मिळेल.
`विद्यमान दुस्थिति को बदलने के लिए एक ऐसी जीवनरचना की आवश्यकता है जिसके जीवनमूल्य अलग ढंग के हो. इसमें भौतिक और अभौतिक जीवनमूल्यों की एक सार्वलौकिक व्यवस्था की जाय. (पूर्णतया आध्यात्मिक पद्धति शब्द का प्रयोग नहीं कर रहा हूँ.) इसमें जैसे एक प्रेरणा भौतिक लाभ की है, वैसी ही दूसरी प्रेरणा सामाजिक प्रतिष्ठा की है. और फिर इन दोनों को संयुक्त कर एक समन्वयात्मक पद्धति का निर्माण आवश्यक है. ऐसी स्थिति का निर्माण अतीत में भारत में किया भी गया था. इसके अंतर्गत सामाजिक प्रतिष्ठा और व्यक्तिगत उपभोग की व्युत्क्रमानुपाती (inverse ratio) व्यवस्था स्थापित कर कहा गया था कि अगर अधिक से अधिक सामाजिक प्रतिष्ठा चाहिए तो कम से कम भौतिक लाभ उठाना होगा. अधिक से अधिक भौतिक लाभ उठाना चाहते हो तो लाभ उठा सकते हो, पर सामाजिक प्रतिष्ठा नही रहेगी. इस समन्वयात्मक और संतुलित रचना द्वारा दोनों प्रेरणाओं को बनाये रखा गया.’ (श्री. दत्तोपंत ठेंगडी - एकात्म मानववाद : एक अध्ययन, फेब्रुवारी १९७०, कानपूर)
`पश्चिम मे व्यक्ती और समाज के बीच बडा संघर्ष है. वहां यह समस्या है कि व्यक्ती और समाज का दायरा, उनकी मर्यादा क्या हो? यदि व्यक्ती का दायरा बडा होगा तो समाज की मर्यादा उसी मात्रा मे छोटी होगी. और यदि समाज का दायरा बडा होगा तो उसी मात्रा मे व्यक्ति की मर्यादा, उसका दायरा छोटा हो जायेगा. इस तरह रस्साकशी चल रही है. भारत में व्यक्ति को भी मान्यता है और समाज को भी. दोनों में विरोध नहीं. व्यक्ति को पूर्ण सुख और संपूर्ण विकास प्राप्त हो इस तरह की सुविधा समाज को देनी चाहिए और समाज का अनुशासन प्रत्येक व्यक्ति पर लागु हो, यह माना गया. प्रत्येक व्यक्ति अपने सुख और विकास की ओर बढे और दूसरी ओर स्वेच्छा से स्वयं को समाजाभिमुख, समाजकेंद्रित एवं समाजसमर्पित करें. अपने परिपक्व सुख और परिपक्व विकास को समाजपुरुष के चरणों पर अर्पित करें. इस प्रकार व्यक्तिस्वातंत्र्य एवं सामाजिक अनुशासन में तादात्म्य लाने का प्रयास हमारे यहां किया गया.’ (श्री. दत्तोपंत ठेंगडी - एकात्म मानववाद : एक अध्ययन, फेब्रुवारी १९७०, कानपूर)
`पश्चिम में राष्ट्रीयता या राष्ट्रवाद का जन्म प्रतिक्रिया में से हुआ. अत: दो देशों की राष्ट्रीयताओं में एक दुसरे के साथ समन्वय नहीं हो पाता और अंतर्राष्ट्रीयता का तालमेल राष्ट्रीयता के साथ संभव नहीं होता. मुझे स्मरण है- जब विश्व हिंदू परिषद का अधिवेशन चल रहा था तब प्रश्न उठा कि हिंदू की परिभाषा क्या होगी? मै उसकी गहराई में नहीं जाना चाहता. किंतु उसमे एक पहलू यह था की हिंदू को राष्ट्रीय माना जाए या अंतर्राष्ट्रीय, या वह उससे भी उपर है? उसकी परिभाषा कैसे की जाय? इसका उत्तर यह दिया गया कि जिस समय संपूर्ण संसार असंस्कृत था हम ही केवल संस्कृत थे. उस समय हिंदू राष्ट्रवाद विश्व की संस्कृति थी. (world civilisation was identified with hindu nationalism). किंतु उस समय भी हमने अपने राष्ट्रीय हित के लिए दुसरे राष्ट्रों का शोषण करना नहीं सोचा. `कृण्वन्तो विश्वमार्यम’ – हम आर्य है और संपूर्ण विश्व को आर्य बनाएँगे. हम संस्कृत है तो सबको संस्कारित करेंगे. उनके स्तर को ऊँचा उठाएंगे. यह हमारा प्राथमिक भावात्मक राष्ट्रवाद है. जो एक ऐतिहासिक तथ्य है और जिसमे राष्ट्रीयता और अंतर्राष्ट्रीयता में विरोध न होकर वह अंतर्राष्ट्रीयता का आधार बन जाता है. कोई व्यक्ति राष्ट्रीय है इसलिए अंतर्राष्ट्रीय न हो और अंतर्राष्ट्रीय है तो राष्ट्रीय न हो; ऐसा हमारे यहां नहीं दिखता. पश्चिम के लोगों को यह बड़ा विचित्र लगता है. वे कहते है कि परस्परविरोधी बाते कैसे कहते हो. एक ही व्यक्ति राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों कैसे हो सकता है? लेकिन इसमें विरोधाभास नहीं है.’ (श्री. दत्तोपंत ठेंगडी - एकात्म मानववाद : एक अध्ययन, फेब्रुवारी १९७०, कानपूर)
`धर्म में समाज की धारणा करने की क्षमता है. हजारो वर्ष तक समाज की धारणा इससे हुई है. यह बात ठीक है कि पिछले बारह सौ तेरह सौ वर्षों में बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार समाज की रचना में कौन कौन से परिवर्तन होने चाहिए इस पर विचार नहीं हुआ. इस परिवर्तन शब्द से चौंकने की जरूरत नहीं. क्योंकि ऐसे परिवर्तन समाज में समय समय पर विशुद्ध दर्शन एवं धर्म के आधार पर होते ही रहे है. इस तरह के परिवर्तन करने के लिए जो शांति का समय चाहिए था वह बारह सौ तेरह सौ वर्षों तक न मिलने के कारण कुछ विकृतियाँ, कुछ दोष अपने यहां अवश्य उत्पन्न हुए है. किंतु इन विकृतियों का शल्यकर्म किया जा सकता है. जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा कि – रोग का निदान करो, रोगी को समाप्त न करो. जो मूल रचना है वह निर्दोष है. जो विकृति आ गयी है उसका आपरेशन कर दीजिए. किंतु व्यवस्था को कायम रखिए.’ (श्री. दत्तोपंत ठेंगडी - एकात्म मानववाद : एक अध्ययन, फेब्रुवारी १९७०, कानपूर)
`प्रश्न यह है कि पश्चिम की विभिन्न विचारधाराएं नई है तो क्या इसलिए उन्हें प्रगतिशील, आधुनिक और श्रेष्ठ मान लिया जाए? उचित तो यह होगा कि दोनों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय. जो अच्छा हो वही लिया जाय. इस दृष्टी से अपनी जो पद्धति है, अपना जो सनातन धर्म है, वह अन्य पाश्चात्य विचारों की तुलना में आज भी महिमामय है. उसकी विशेषताएं तो बहुत है किंतु आज के संदर्भ में उसको स्पष्ट करते हुए स्व. पंडित जी ने कहा था कि हम एकात्म मानववाद के पुजारी है.’ (श्री. दत्तोपंत ठेंगडी - एकात्म मानववाद : एक अध्ययन, फेब्रुवारी १९७०, कानपूर)
`बचपन के अहंकार से लेकर संन्यासी जीवन की चरमोत्कर्ष अवस्था तक का यह जो सुदीर्घ वैचारिक प्रवास है उसमे जैसे जैसे आत्मचेतना बढती जाती है, वैसे वैसे उसके लिए पुरानी इकाई सब तरह से सत्य होते हुए भी नई इकाई के सत्य का साक्षात्कार उसको होता जाता है. अंतिम साक्षात्कार सर्वं खल्विदं ब्रम्ह का साक्षात्कार संन्यास अवस्था में होता है. दुसरे शब्दों में सभी इकाइयां सत्य है. हमारी आत्मचेतना का जैसे जैसे विस्तार होगा, वैसे वैसे हमारे साक्षात्कार का विकास होगा. सभी सत्य है इस कारण एक दुसरे का तिरस्कार नहीं, उसका परित्याग नहीं और निषेध नहीं होगा. जैसे बिज से अंकुर और अंकुर से पौधा निकलता है तथा वहीँ से शाखा एवं पल्लव निकलते है. उसमे से फुल और फल निकलते है. हर एक का आकार अलग है. अंकुर अलग है, पौधा अलग है, फुल अलग है, फल अलग है. एक दुसरे का संबंध नहीं दिखता. प्रतीत होता है की यह अत्यंत अराजक स्थिति है लेकिन यह अराजक न होकर एक विकासक्रम है. बिज और अंकुर में कोई विरोध नहीं है. इन सबमे कोई विरोध नहीं है. सबसे छोटी इकाई से लेकर सबसे बड़ी इकाई तक एकात्म है. सभी अपने अपने दायरे में सत्य है. कोई एक दुसरे का विरोध नहीं करता. यह भारतीय विचार पद्धति की विशेषता है.’ (श्री. दत्तोपंत ठेंगडी - एकात्म मानववाद : एक अध्ययन, फेब्रुवारी १९७०, कानपूर)
`मनुष्य आर्थिक प्राणी से उपर भी कुछ है. वह शरीरधारी, मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक प्राणी भी है. उसके व्यक्तित्व के अनेकानेक पहलू है. अत: यदि संपूर्ण व्यक्तित्व के सभी पहलुओं का संगठित और एकात्म रूप से विचार न हुआ तो उसको सुख समाधान की अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती. अपने यहां इस दृष्टी से संगठित एवं एकात्म स्वरूप का विचार हुआ है. व्यक्ति की भौतिक, आर्थिक आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर यह कहा गया है कि इन वासनाओं की तृप्ति होनी चाहिए, लेकिन यह भी कहा गया कि उन पर कुछ वांछनीय मर्यादा भी आवश्यक है. केवल फ्राइड ने ही काम का विचार अत्यंत गंभीरता से किया है ऐसी बात नहीं है. हमारे यहां भी काम को मनुष्य के अपरिहार्य आवेग के रूप में स्वीकार कर उस पर गंभीरता से विचार किया गया है.’ (श्री. दत्तोपंत ठेंगडी - एकात्म मानववाद : एक अध्ययन, फेब्रुवारी १९७०, कानपूर)
`अर्थ को भी अपने यहां स्वीकार किया गया है. अर्थशास्त्र की भी रचना हुई है. सबके भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति इतनी अवश्य होनी चाहिए कि उसके कारण अपना पेट पालने के लिए व्यक्ति को २४ घंटे चिंता करने की आवश्यकता न हो. उसे पर्याप्त अवकाश मिल सके जिससे वह संस्कृति, कला, साहित्य, भगवान आदि के बारे में चिंतनशील हो सके. इस प्रकार अर्थ और काम को मान्यता देकर भी यह कहा गया कि एक एक व्यक्ति का अर्थ और काम उसके विनाश का कारण न बने या समाज के विघटन का कारण न हो. (इसी एकात्म समग्र चिंतन के फलस्वरूप चतुर्विध पुरुषार्थ की कल्पना का विकास हुआ.) इस समन्वयात्मक, संगठित और एकात्म कल्पना में व्यक्ति का व्यक्तित्व विभक्त नहीं हुआ. वह आत्मविहीन एवं मानसिक दृष्टी से अस्वस्थ प्राणी न बन सका. इस चतुर्विध पुरुषार्थ ने प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, बौद्धिक क्षमताओं के अनुसार अपना जीवनादर्श चुनने का अवसर दे दिया और साथ ही व्यक्तित्व को अखंड बनाए रखा.’ (श्री. दत्तोपंत ठेंगडी - एकात्म मानववाद : एक अध्ययन, फेब्रुवारी १९७०, कानपूर)
`जहां तक मानव समाज रचना का प्रश्न है, इसका अंतिम अनुक्रम यही हो सकता है- व्यक्ति, परिवार, इसीमे आगे बढ़ते बढ़ते राष्ट्र का राष्ट्रीय शासन और फिर इसी एकात्म मानववाद के आधार पर विश्वराज्य का आविष्कार होगा. वैचारिक जगत में उसका दूसरा तार्किक अनुक्रम अद्वैत सिद्धांत का साक्षात्कार होगा. इस एकात्म मानववाद के अंतर्गत अस्तित्व में आनेवाला विश्वराज्य कम्युनिस्टों के विश्वराज्य से बिलकुल भिन्न होगा. कम्युनिस्टों का विश्वराज्य एक केंद्र पर आश्रित है. हमारा विश्वराज्य अनेक केन्द्रों पर निर्भर होगा. कम्युनिस्ट व्यवस्था में वैचारिक आबद्धता के अंतर्गत एकरूपता दिखाई देगी. किंतु अपने विश्वराज्य में ऐसी थोपी गयी एकरूपता नहीं होगी. एकात्म मानववाद प्रत्येक राष्ट्र को अपनी अपनी प्रकृति और प्रवृत्ति के अनुसार विकास करने की स्वतंत्रता देगा. इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपने गुण कर्म के अनुसार विकास कर, विकास का संपूर्ण फल समाजपुरुष को अर्पित करता है, उसी तरह प्रत्येक राष्ट्र अपने को मानवता का अंग समझेगा. हम सभी मानवता के साथ अपने को एकात्म समझ ले और संपूर्ण मानवता की प्रगति के लिए अपने राष्ट्र की जो विशेषताएं होंगी, प्रगति की जो विशेषताएं होंगी, उनका परिपक्व फल मानवता के चरणों में अर्पित करेंगे. इस तरह हर एक राष्ट्र स्वायत्त रहते हुए अपना विकास भी करेगा. किंतु विश्वात्मा का भाव मन में रहने के कारण एक दुसरे का पोषक, संपूर्ण मानवता का पोषक विश्वराज्य पंडित दीनदयालजी के एकात्म मानववाद की रचना की दृष्टी से चरम परिणति होगी. इसी भांति वैचारिक क्षेत्र में अद्वैत का साक्षात्कार तर्कशुद्ध परिणति है.’ (श्री. दत्तोपंत ठेंगडी - एकात्म मानववाद : एक अध्ययन, फेब्रुवारी १९७०, कानपूर)
- श्रीपाद कोठे
१० ऑक्टोबर २०२०